Sunday, March 30, 2014

लचर तंत्र के देश का कालाधन

विदेशों में जमा भारतीयों का कालाधन फिर चर्चा में है। दस साल तक केंद्रीय सत्ता पर आसीन रही कांग्रेस भी कुछ यूं उपक्रम दिखा रही है जैसे वह इस मामले में काफी गंभीर है। वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने स्विट्जरलैंड के वित्तमंत्री को पत्र लिखकर भारतीय नागरिकों के वहां के बैंकों में रखे कथित कालेधन के बारे में सूचना न देने पर चिंता जताई है। घोषणापत्र में विशेष दूत नियुक्त करने का वादा भी किया है। हालांकि सरकार और कांग्रेस की यह सक्रियता चुनावी वजहों से है, क्योंकि भाजपा के पीएम प्रत्याशी नरेंद्र मोदी लगातार कालेधन का मामला उठा रहे हैं। आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल तो दो उद्योगपतियों के नाम और स्विस बैंक में उनके एकाउंट नंबर सार्वजनिक भी कर रहे हैं। योग गुरू रामदेव ने भी देशभर में घूम-घूमकर कालाधन जमा करने वाले वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं का नाम खोलने की बात कही है। केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार का यह दूसरा कार्यकाल है। इन दोनों कार्यकालों में हल्ला तो खूब मचा लेकिन कालेधन पर पहल कोई नहीं हुई। यह स्थितियां तब हैं जबकि भारत और स्विट्जरलैंड के बीच नया कर समझौता भी हो चुका है। इसमें एक- दूसरे से सूचनाओं को साझा करने का प्रावधान है। लोकसभा चुनाव की उल्टी गिनती शुरू हुई, भाजपा ने इसे चुनावी मुद्दा बनाने का ऐलान किया तो वित्तमंत्री ने पिछले अक्टूबर में स्विट्जरलैंड के वित्तमंत्री इवेलिन विदमर स्कूम्फ से मुलाकात की। मार्च में उन्होंने इलेविन को पत्र तब भेजा जब मोदी ने इसे प्रमुख चुनावी मुद्दा बनाने की घोषणा कर दी। उन्होंने कहा कि यह एक राष्ट्र-विरोधी गतिविधि है। कालेधन को वापस लाने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए। दिल्ली में सरकार बनने पर हम एक कार्यबल बनाएंगे और कानूनों में संशोधन करेंगे। चिदम्बरम ने लिखा, बैंकों में गोपनीयता का दौर खत्म हो चुका है। अगर स्विट्जरलैंड इसके आधार पर सूचना नहीं देना चाहता है तो इसका मतलब है कि वह आधुनिक समय के साथ नहीं चल रहा और इस दौर में भी बैंकिंग सूचनाएं छिपाने में विश्वास करता है। उन्होंने स्विस सरकार से 562 बैंक खातों से जुड़ी सूचनाएं मांगी थीं। सीबीआई के अनुसार भारत का 24.5 लाख करोड़ रुपया विदेशी बैंकों में जमा है। यह भारतीय कालाधन अन्य देशों के मुकाबले काफी ज्यादा है। जांच एजेंसी का आंकलन है कि टैक्स बचाने या कालेधन को सफेद धन में बदलने के लिए धनी लोग मॉरीशस, स्विट्जरलैंड, ब्रिटिश वर्जिन द्वीप आदि के बैंकों में अपना धन जमा कर देते हैं। इन देशों के बैंकिंग नियमों की वजह से कालेधन को रोकने और उस पर कानूनी शिकंजा कसने में काफी समय निकल जाता है और तब तक जमाकर्ता उस देश के कानून से संरक्षण हासिल कर लेते हैं। कालेधन के खिलाफ सक्रिय संगठन टैक्स जस्टिस नेटवर्क का कहना है कि दुनियाभर के धनी लोगों के इस समय लगभग 15 लाख करोड़ डॉलर इन टैक्स हेवंस में जमा हैं। सन 1980 में प्रारंभ हुए आर्थिक उदारीकरण के दौर में इन देशों की बैंकों में जमा धन तीन गुना से अधिक बढ़ गया है। इस तंत्र का लाभ उठाकर यह धनी व्यक्ति और संस्थान हर वर्ष करीब 250 अरब डॉलर टैक्स बचाते हैं, जो संयुक्त राष्ट्र के स्तर से घोषित विश्व सहस्राब्दी लक्ष्य प्राप्त करने के लिए जरूरी धनराशि से कहीं अधिक है। इसका नकारात्मक प्रभाव और भी है। विश्व स्तर पर वित्तीय संकट खड़ा करने में इन 'टैक्स हेवनों' की बड़ी भूमिका रही है। यह विश्व अर्थव्यवस्था में अपराध, मुनाफाखोरी और जालसाजी को बढ़ावा देने वाली एक समानांतर व्यवस्था है। निश्चित रूप से यह पैसा भ्रष्टाचार से कमाया हुआ है और ऐसे धन के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र ने संकल्प पारित किया है जिसका उद्देश्य गैरकानूनी तरीके से विदेशों में जमा धन वापस लाना है। इस संकल्प पर भारत सहित 140 देशों ने हस्ताक्षर किए हैं और 126 देशों ने इसे लागू कर काले धन की वापसी की कार्रवाई भी शुरू कर दी है। और... हमारे यहां विदेशी बैंकों में जमा कालेधन को वापस लाने के लिए कोई ठोस कानून तक नहीं है इसलिए इस दिशा में ठोस कानून बनाने की आवश्यकता है। इसके साथ ही कालेधन के मुद्दे पर राष्ट्रीय आम सहमति बनाने की जरूरत भी है। कालेधन की वापसी से भारतीय अर्थव्यवस्था का कायापलट हो सकता है। अगर ये काला धन देश की अर्थव्यवस्था के साथ जोड़ दिया जाए तो स्वास्थ्य, शिक्षा, पानी, बिजली आदि बुनियादी आवश्यकताओं को सहज ही पूरा किया जा सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत जैसे देश के आर्थिक हालात ऐसे कतई नहीं कि वह इस प्रकार के नकारात्मक आर्थिक वातावरण का सामना कर सके। निश्चित रूप से देश की भावी सरकार को पूरी गंभीरता से काम करना चाहिए ताकि विदेशों में जमा काला धन यथाशीघ्र देश में वापस आ सके। साथ ही, ऐसे गैरकानूनी कामों में लिप्त लोगों को सजा भी दी जानी चाहिए। इनके नाम भी यथाशीघ्र उजागर किए जाने चाहिए ताकि देश की जनता यह समझ सके कि नेता, अभिनेता, अधिकारी, धर्मगुरु, व्यापारी या समाजसेवी के रूप में दिखने वाला यह व्यक्ति वास्तव में वह नहीं है जो दिखाई दे रहा है बल्कि साधु के भेष में शैतान और देश का सबसे बड़ा दुश्मन है।

Tuesday, March 18, 2014

काल्पनिक दुनिया के दंश

सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर नजर रखने के लिए अमेरिकी निगरानी तंत्र तैयार है। उसने वायरस भेजकर फेसबुक के सर्वर की नकल कर ली है, डाटा कॉपी करने की प्रक्रिया जारी है, एक क्लिक में जिस प्रोफाइल की चाहे, पूरी हिस्ट्री अपने पास मंगा सकता है। बात इतनी सी नहीं, याहू और गूगल जैसी कंपनियां सकते में हैं। आपातकालीन उपाय शुरू हो गए हैं, अमेरिका से इंटरनेट आजादी के लिए अपील की गई है। कंपनियां चाहें कुछ भी कहें-करें लेकिन मीडिया का यह नया अवतार अधिकारों के दुरुपयोग और माहौल बिगाड़ने के संगीन आरोपों में घिरने लगा है। बेशक, मुखर आवाजों को इसने मंच दिया है, बदलाव के रास्ते खोले हैं लेकिन यह आजादी गले में फंसने भी लगी है। फेसबुक जैसी सोशल नेटर्वकिंग साइट्स का कितना विस्तार हुआ, यह बताने की जरूरत नहीं। यह शहरों की सीमाओं से पार है, मोबाइल डाटा कार्ड्स-डोंगल्स ने इसे गांवों तक पहुंचा दिया है। हर वर्ग सक्रिय है, मुखर है। जो मन आता है, लिख-शेयर कर देता है। ताकतवर सरकारें भी इसकी अनदेखी नहीं कर पा रहीं। इसी ताकत का ही असर है कि भारत में कुछ दिन बाद होने जा रहे लोकसभा चुनावों में लोगों की नब्ज जांचने का एक पैमाना इसे भी मान लिया गया है। इन साइट्स पर ज्यादा सक्रिय लोग आज किसी हस्ती से कम नहीं। फॉलोअर्स और फ्रेंड्स में जो जितनी ज्यादा बात पहुंचा रहा है, उसका उतना ही महत्व है। आइरिश नॉलेज फाउंडेशन एवं इंडियन इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन के सर्वेक्षण के अनुसार, आज फेसबुक उपयोगकर्ताओं की संभावित संख्या 160 लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों में रह रहे लोगों के लगभग बराबर है और 2009 के संसदीय चुनावों में जीत के अंतर की तुलना में काफी अधिक। बेशक, देश में इंटरनेट की पहुंच मात्र 10 फीसदी लोगों तक ही है लेकिन इंटरनेट उपयोग के मामले में अमेरिका और चीन के बाद भारत तीसरे स्थान पर है। एक अनुमान के अनुसार, देश में करीब 65 लाख लोग सोशल मीडिया का उपयोग करते हैं। मोबाइल पर इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या लगभग 39.7 लाख के आसपास है जिसमें 82 फीसदी लोग सोशल मीडिया का उपयोग कर रहे हैं। तस्वीर का नकारात्मक पहलू देखें तो न्यू मीडिया का दुष्प्रभाव भी सामने आने लगा है। यह इतना भारी-भरकम हो चुका है कि जरा सी भी नकारात्मकता बड़ा असर दिखाने में पूरी तरह सक्षम सिद्ध होती है। यह अगर किसी की छवि बना सकता है तो बनाने से ज्यादा रफ्तार से उसे बिगाड़ भी सकता है। ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं, सोशल मीडिया की उपज मानी जाने वाली भारत की नई राजनीतिक शक्ति आम आदमी पार्टी का ही उदाहरण लें। फेसबुक और ट्विटर पर इस पार्टी के साढ़े चार हजार से ज्यादा फर्जी प्रोफाइल हैं। यह लोग यदि एकजुट हो जाएं तो आम आदमी पार्टी की छवि एक झटके में जमींदोज कर सकते हैं। भाजपा और कांग्रेस जैसे दल भी इसी समस्या से दो-चार हो रहे हैं। दुष्प्रभाव और भी हैं। सोशल नेटर्वकिंग साइट्स लोगों को एक-दूसरे से जोड़ने के लिए हैं लेकिन यह समाज में विकृतियां भी फैला रही हैं। फेसबुक की आभासी दुनिया मिले बगैर एक-दूसरे से जुड़ा रखती है। एक-दूसरे के सपने, सुख-दु:ख बांटती भी है और दूसरे ही पल रिश्तों को ब्लॉक कर आगे बढ़ जाती है। गावों-शहरों में भी फेसबुक का एक इस तरह का संसार बन चुका है जिसमें दिन-रात कमेंट, लाइक और शेयर का खेल चलता रहता है। युवाओं का एक बड़ा हिस्सा फेसबुक का आदी बन चुका है। यह एडिक्शन उनकी जिंदगी में ऐसा सूक्ष्म बदलाव ला रहा है, जिसका अंदाजा वे नहीं लगा पा रहे हैं। उनके लिए फेसबुक स्टेटस सिंबल है। अमेरिका में फेसबुक यूजर्स पर हुए अध्ययन के मुताबिक, फेसबुक पर ज्यादा समय बिताना अवसाद बढ़ा रहा है। आभासी दुनिया यूजर्स को वास्तविकता से परे ले जा रही है। और तो और... जाति और समाजों में दुर्भाव फैलाने में भी इसकी भूमिका उजागर हुई है। ऐसी स्थितियों में अमेरिका अगर निगरानी तंत्र बना रहा है तो उसे एक हद तक सही माना जाना चाहिये। फेसबुक और ट्विटर के साथ अमेरिकी निगरानी के विरुद्ध एकजुट हुर्इं गूगल, एपल, माइक्रोसॉफ्ट, लिंक्डइन, एओएल, पॉलटॉक, स्काइप जैसी कंपनियां विपरीत प्रभावों के लिए कोई तंत्र बनाने में असफल सिद्ध हुई हैं। समस्या यहीं खत्म नहीं होती, ह्वाट्सएप के समानांतर तेजी से खड़े हुए टेलीग्राम जैसे एंड्रायड मैसेंजर तो सीक्रेट चैट जैसे आॅप्शन दे रही हैं, जो वह अपने सर्वर पर भी रिकॉर्ड नहीं करतीं। मान लीजिए कि यदि दो उग्रवादी आपस में सीक्रेट चैट से किसी साजिश को अंतिम रूप दें तो उसे पता लगा पाना मुश्किल ही नहीं, असंभव होगा। बेशक, फेसबुक के संचालक मार्क जुकरबर्ग की इस बात से किसी को असहमति नहीं होगी कि अमेरिका को इंटरनेट अधिकार बाधित करने के बजाए उनके संरक्षण के उपाय करने चाहिये लेकिन वह यह नहीं बता रहे कि तमाम देशों की सरकारों से आग्रह आने के बावजूद उन्होंने अपने स्तर से निगरानी का तंत्र क्यों नहीं बना पाए। स्ट्जिरलैण्ड की सरकार ने तो यहां तक कहा था कि फेसबुक जैसी साइट्स निगरानी तंत्र बनाएं, बेशक सरकारों के सूचनाएं तभी दें जबकि कोई देश विरोधी गतिविधि में उनकी आवश्यकता महसूस हो। कहने का आशय यह कतई नहीं कि निगरानी के लिए अमेरिका का कदम पूरी तरह सही है किंतु कंपनियों को भी अपनी जिम्मेदारी हर सूरत में निभानी चाहिये। जिस तरह की घटनाएं हुई हैं, सबक मिले हैं, उससे इन आंशिक पाबंदियों की जरूरत महसूस हुई है।

Wednesday, March 12, 2014

पचनदा: जल संकट का निदान, बोनस में टूरिज्म स्पॉट

गर्मियां दस्तक दे रही हैं, इसी के साथ जबर्दस्त जल संकट शुरू होने वाला है। यमुना के पानी की मारामारी मचेगी, गंगा जल मंगाने के लिए हल्ला होगा लेकिन समस्या के स्थाई समाधान की तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा। आसान उपाय है, अगर इटावा जिले के दक्षिणी भाग में स्थित पांच नदियों के संगमस्थल पचनदा पर बांध निर्माण करा दिया जाए तो आगरा समेत कई जिलों की पीने के पानी की कमी को काफी हद तक दूर किया जा सकता है। इसी के साथ एक शानदार पर्यटन स्थल के विकसित होने का बोनस भी मिलेगा। यमुना पचनदा की प्रमुख सदाबहार नदी है। चम्बल, पार्वती, किबाड़, क्वारी, पहुज आदि कुछ अन्य नदियां पचनदा पर यमुना में विलय होती हैं। अत: पचनदा पर यमुना नदी में पूरे साल भरपूर पानी रहता है बल्कि यह पानी अन्य नदियों की तुलना में स्वच्छ और शुद्ध भी है। पचनदा इटावा के चकरनगर क्षेत्र में है। यहां प्राचीन ऐतिहासिक महाकालेश्वर बाबा का मंदिर बना हुआ है। यहां 317 ई. से कार्तिक पूर्णिमा पर मेला लगता है। लगभग 50 वर्ष पूर्व सिंचाई विभाग ने सर्वेक्षण कराकर पचनदा पर बांध निर्माण कराने की परियोजना रिपोर्ट उत्तर प्रदेश शासन को प्रस्तुत की थी लेकिन यह फाइलों में गुम हो गई। पचनदा के महत्व की अज्ञानता के कारण भी सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया। प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के लिए इटावा का खास महत्व है, खुद सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव इसी जिले के निवासी हैं। ऐसे में यह उपेक्षा ज्यादा सालती है। आश्चर्य होता है कि उनका ध्यान पचनदा की निरर्थक बहती अथाह जलराशि की ओर क्यों नहीं गया। नदियों का पानी भी धनराशि होता है। अत: पचनदा पर बांध निर्माण की संभावनाओं का नये सिरे से सर्वेक्षण कराकर पता लगाना चाहिए। पचनदा का महत्व इलाहाबाद के संगम से किसी प्रकार कम नहीं है। पचनदा में यमुना नदी पर बांध बनने से उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा पूर्वी राजस्थान के कई जिले लाभान्वित होंगे। इसलिये यहां तीनों राज्य सरकारों द्वारा विश्व बैंक की सहायता से संयुक्त रूप से बैराज का निर्माण कराने पर विचार किया जा सकता है। यमुना का संगम स्थल पचनदा पर्यटन की दृष्टि से रमणीक स्थल है। इसका अनुमान और भव्यता की कल्पना इसी तथ्य से की जा सकती है कि दस्यु उन्मूलन समस्या पर बहुचर्चित फिल्म मुझे जीने दो का एक पूरा गीत नदी नारे न जाओ श्याम पैंय्या पड़Þूं को पचनदा में ही फिल्माया गया था। पचनदा पर ही यमुना-चम्बल विलय क्षेत्रों में डाल्फिन मछली के अलावा तमाम किस्म के जलजीव बहुतायत में पाये जाते हैं। मध्य प्रदेश का मगरमच्छ अभ्यारण भी अटेर से पचनदा तक विद्यमान है। यमुना-चंबल नदियों का जल संग्रहण क्षेत्र आगरा यानि उत्तर प्रदेश के दक्षिणी-पूर्वी प्रवेश द्वार पर स्थित है। पश्चिम में राजस्थान और दक्षिण में मध्य प्रदेश की सीमाओं से जुड़ा है। आगरा जिले के पश्चिम में मथुरा, उत्तर में हाथरस, अलीगढ़ और पूरब में फीरोजाबाद, मैनपुरी-इटावा जनपद स्थित है। यह सभी जिले यमुना नदी के जल संग्रहण क्षेत्र में फैले हुए हैं। इसके अतिरिक्त उतरी मध्य प्रदेश का चंबल संभाग था पूर्वी राजस्थान की जल निकासी चंबल तथा उसकी सहायक नदियों के जरिए यमुना में होती है। उत्तर प्रदेश के दक्षिणी भाग, विशेष रूप से आगरा जिले, में चंबल और यमुना नदियां बाह तहसील क्षेत्र में एक-दूसरे के समानान्तर बहते हुए उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान की सीमा निर्धारित करती हैं और इटावा के पचनदा में एक-दूसरे में विलय हो जाती हैं। यमुना नदी आगरा जिले की प्रमुख सदाबहार नदी है। यमुनोत्री ग्लेशियर से निसृत होकर पहाड़ों तथा मैदानों से गुजरती हुई यह कीठम के पास आगरा जनपद में प्रवेश करती है। चम्बल आगरा जिले की दूसरी और सदाबहार प्रमुख नदी है। चंबल मध्य प्रदेश के उज्जैन-मऊ नगरों के बीच विंध्य-पर्वतमाला के उत्तरी ढलानों से निसृत होकर मध्य प्रदेश एवं राजस्थान में लंबे और विस्तृत जलग्रहण क्षेत्र में बहती हुई तासौड़ गांव के समीप आगरा जनपद में प्रवेश करती है। चम्बल नदी यमुना नदी के समानान्तर बहती हुई मध्य प्रदेश के मुरैना और भिंड जिलों को अलग करते हुए राज्यों की सीमा निर्धारित करती है और बाह तहसील के अंतिम छोर पर अटेर से आगे पचनदा पर यमुना में विलीन हो जाती है। राजस्थान में कोटा के समीप चम्बल नदी पर गांधी सागर बांध के निर्माण से नदी के निचले भाग में पानी की मात्रा बहुत कम हो गई है। शक्तिशाली पम्पों से चम्बल का पानी पाइप लाइन से धौलपुर नगर तक पहुंचाया जाता है। इस कारण उत्तर प्रदेश में पिनाहट की चंबल डाल सिंचाई परियोजना के लिए समुचित पानी नहीं मिलता। राजस्थान निर्धारित मात्रा से अधिक पानी खींच लेता है। नदी में यहां पानी की मात्रा कम होने के कारण बड़ी जल विद्युत अथवा सिंचाई योजना स्थापित नहीं की जा सकी है परन्तु पचनदा पर वर्ष भर काफी पानी उपलब्ध रहने की वजह से बांध बनाने की परिस्थितियां अनुकूल हैं। आगरा की तीसरी प्रमुख नदी उटंगन, जिसे बांण गांगा भी कहते हैं, का दगम स्थल राजस्थान के जिले सवाई माधौपुर के कसौली गांव के समीप है। उटंगन किरावली तहसील के जारौली गांव से उत्तर प्रदेश की सीमा में प्रवेश करती है और चम्बल की भांति यमुना की प्रमुख सहायक दी है। उत्तर में खारी और दक्षिण में क्वारी नदी उटंगन की प्रमुख शाखाएं हैं। ये सभी नदियां प्राय: बरसाती हैं। मध्य प्रदेश के उत्तरी भाग में पूर्वी राजस्थान से निकलकर बहने वाली पहुज तथा आसन भी चम्बल में विलीन हो जाती हैं। इन सभी नदियों का जल ग्रहण क्षेत्र काफी विस्तृत है परन्तु इनका जल निरर्थक बह रहा है। गोकुल बैराज के बाद डाउन स्ट्रीम में यमुना नदी पर कोई बांध नहीं है। पंचनदा के नदियों के संगम स्थल पर यदि बांध का निर्माण कराया जाता है तो डूब में आने वाली भूमि के अधिग्रहण की भी कोई समस्या नहीं होगी क्योंकि यमुना चम्बल और उटंगन नदियों का जल ग्रहण क्षेत्र अनुपजाऊ दुर्गम बीहड़ क्षेत्र है। नदियों का जल स्तर ऊंचा उठने से बीहड़ उन्मूलन की क्रिया स्वत: शुरू हो जाएगी। विशाल क्षेत्र में भूगर्भ जलस्तर खुद-ब-खुद ऊंचा उठने लगेगा। भूमिगत जलस्तर बढ़ने से उजाड़-बियाबान बीहड़ों में हरियाली भी बढ़ जायेगी। पंचनदा पर संभावित बांध से थोड़ी बहुत जल विद्युत उत्पादन की संभवना है। यह परियोजना बहुउद्देश्यीय था महत्वाकांक्षी सिद्ध होगी। मध्य प्रदेश सरकार ने चम्बल संभाग की सभी छोटी-बड़ी नदियों को जोड़ने का काम पूरा कर लिया है। राजस्थान के पूरबी भाग की नदियों पर बांध निमार्णों और उन्हें नहरों से परस्पर जोड़ने का कार्य दो सौ वर्ष पूर्व ही पूरा कर लिया गया था। पूरबी राजस्थान की जल और बाढ़ नियंत्रण प्रणाली को भरतपुर इरीगेशन सिस्टम के नाम से जाना जाता है जिसे चीन ने भी अपनाया है। पंचनदा की अपस्ट्रीम में मगरमच्छ पालन की योजना क्रियान्वित हो चुकी है। उत्तर प्रदेश सरकार को भी इस दिशा में गंभीरता से सोचना चाहिये।

Saturday, March 1, 2014

पूर्वोत्तर के साथ सौतेलापन

... तो क्या पूर्वोत्तर की किस्मत करवट लेने के लिए तैयार है? बदहाली की कहानियां बीते जमाने की बात बनने जा रही हैं? उपेक्षा जो दंश देश का यह हिस्सा आजादी के पहले दिन से भोग रहा है, वो क्या खत्म होने जा रहा है? दो खबरें ऐसी उम्मीद जगा रही हैं, वह भी उन दिनों में जब अरुणाचल के विधायक पुत्र नीडो तानियम की हत्या से वहां दुख का माहौल है। पहली बार पूर्वोत्तर का कोई सैन्य अधिकारी लेफ्टिनेंट जनरल के पद का कार्यभार संभालने जा रहा है, दूसरी खबर ज्यादा अहम है कि पहली बार किसी राष्ट्रीय दल से सर्वोच्च वरीयता पर क्षेत्र को लिया है, भाजपा के प्रधानमंत्री प्रत्याशी नरेंद्र मोदी वहां गए हैं। अरुणाचल प्रदेश के पासीघाट क्षेत्र में हुई सभा में उन्होंने विश्वास दिलाया है कि क्षेत्र की उपेक्षा का यह पुराना सिलसिला अब खत्म हो जाएगा। वह असम के सिल्चर में भी गए और सभा को संबोधित किया। मोदी पीएम बनें या नहीं, लेकिन पूर्वोत्तर को सियासत के मुख्य नक्शे पर लाने का श्रेय उन्हें जरूर मिलेगा। प्राकृतिक सौंदर्य से लबरेज पूर्वोत्तर राज्यों की खूबियां लम्बे समय से चल रहे अलगाववाद, हिंसात्मक उथल-पुथल के बीच दबकर रह गयी है और इनकी पहचान के साथ उग्रवाद जुड़ गया। हाल यह है कि देश के शेष हिस्सों के सामने इस क्षेत्र का सियासी, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पहलू का दबा-कुचला स्वरूप ही सामने आता है। पूर्वोत्तर की उपेक्षा की बात करते वक्त कई सवाल उठते हैं, देश के राजनेता क्यों इस तरह मुंह नहीं करते? क्यों उन्हें इस क्षेत्र की चिंता नहीं होती, समस्याओं से मुक्ति दिलाने का सपना दिखाकर पड़ोसी देश चीन भीतर तक घुसने में कामयाब होता है तो क्यों स्थानीय लोग उसके साथ खड़े होते हैं? खूबसूरत प्राकृतिक संपदा वाले देश के इस हिस्से में पर्यटन की योजनाएं क्यों परवान नहीं चढ़तीं? जबकि केंद्र खुद यह मानकर चलता है कि यदि पर्यटन उद्योग के रूप में विकसित हो जाए क्षेत्र विकास के लिए धन का टोटा खत्म हो सकता है। इन सभी सवालों का एक ही जवाब है कि क्षेत्र का राजनीतिक नेतृत्व बेहद कमजोर है और लोकसभा की सीटें इतनी नहीं कि कोई राजनीतिक दल सत्ता की कुंजी मानकर उसे टॉप प्रॉयर्टी पर रखे। लोकसभा सीटों का परिसीमन भी इतना बेढ़ब है कि 38 लाख की आबादी वाले अंडमान-निकोबार का नेतृत्व एक सांसद करता है और 39 हजार की आबादी वाले लक्षद्वीप का भी एक ही सांसद है। वर्ष 1975 में सिक्किम भारतीय संघ का अंग बना तब से सिक्किम को सिर्फ एक लोकसभा सीट मिली है। बीस लाख की आबादी वाले नगालैंड और दस लाख की जनसंख्या वाले मिजोरम भी महज एक-एक सांसद से संतोष कर रहे हैं। इसी तरह त्रिपुरा, मणिपुर, मेघालय में दो-दो और पुड्डुचेरी में सिर्फ एक संसदीय सीट है। असम में चूंकि 14 लोकसभा सीटें हैं, इसलिये वहां का विकास भी हुआ है और राजनीतिक दल उसे खासी अहमियत भी प्रदान करते हैं। इसीलिये समस्याओं के ढेर लगे हैं। अगर कोई पर्यटक यहां घूमने जाना भी चाहे तो मुश्किलों का अंबार उसके हौसले को रोकने की कोशिश करता है। सीधी क्या, अहम शहरों में ट्रेनों की इनडायरेक्ट कनेक्टिविटी भी नहीं है। हवाई रूट नहीं हैं। संपर्क के जरिए इतने दुरूह हैं कि पूर्वोत्तर में अलगाववादियों ने विस्तार पा लिया है। असुरक्षा का उदाहरण देखिए, दुकानदारों और यहां तक सरकारी अफसरों से भी, अलगाववादी चौथ वसूल लेते हैं। राज्य के व्यावसायिक शहर दीमापुर को छोड़ कर राजधानी कोहिमा सहित सभी शहर, बाजार शाम चार-पांच बजते-बजते बंद हो जाते हैं। सड़कों पर वाहनों का आना-जाना लगभग समाप्त हो जाता है। शाम होते ही शहर में सैनिक मोर्चा संभाल लेते हैं, मानो कर्फ्यू लग गया हो। यह क्षेत्र भारत का हिस्सा है या नहीं, इसका फैसला तभी हो जाता है जब असम पार करते ही आॅल इंडिया रोमिंग सुविधा फोन काम करना बंद कर देते हैं। इंफाल राजधानी है मणिपुर की लेकिन यहां सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकों की शाखाएं ही नजर नहीं आतीं, निजी क्षेत्र की बैंकें तो बहुत दूर की बात हैं। सूचना क्रांति, 3जी-4जी नेटवर्क जैसी बातें इस क्षेत्र के लिए सपने से कम नहीं। फिर समस्या का समाधान क्या है। बकौल मोदी, देश की सरकार को इस क्षेत्र की तरफ पूरा ध्यान देना चाहिये और चीन को विस्तारवादी नीति छोड़कर विकास की तरफ रुख करना चाहिये। वाकई, समस्या पर ध्यान देने का यह अहम वक्त है वरना स्थितियां काबू से बाहर हो सकती हैं। नीडो की हत्या से एक गलत संकेत यह मिला है कि देश के अन्य हिस्सों में पूर्वोत्तर के लोगों को लेकर कोई अच्छा भाव नहीं है और वह उनसे विदेशियों की तरह व्यवहार करते हैं। नस्ली भेदभाव के ताजा घटनाक्रमों के संदर्भ में फौरी कदम उठाए जाने की जरूरत है। निरपराध नागरिकों की हिफाजत के लिए जो जरूरी हो, वह राज्य सरकारों को करना चाहिए, ताकि आग आगे फैलने न पाए। दोषियों पर सख्ती हर सरकार का पहला कदम होना चाहिये। राजनेताओं को भी आचरण सुधारना होगा, जरूरी है कि वह क्षेत्रवाद के उभार का फायदा उठाने के बजाए भारतीयता के लिए प्रतिबद्धता जाहिर करने में कोई कसर न छोड़ें। इसके साथ ही पूर्वोत्तर के राज्यों में विकास की गंगा बहाए जाने की आवश्यकता है। बड़े उद्योग घरानों को वहां उद्योग लगाने के लिए प्रेरित करना होगा क्योंकि अवसर और संसाधनों की कमी जब तक रहेगी, उपेक्षा का बहाना बनाकर संगठन संघर्ष की जमीन तैयार करते रहेंगे। यह सही है कि इस अभाव को रातोंरात दूर नहीं किया जा सकता, लेकिन जो और जैसा भी मौजूद है, उसे बांटने में पक्षपात बंद होना चाहिये।

आधुनिकता के ये ढोंग

असम के जोरहाट जिले में आदिवासी महिला बोंटी को उसके पति ने जलाकर मार डाला और मथुरा के गांव में दलित महिला राजकुमारी को मनोकामना पूरी होने पर मंदिर में जेहर नहीं चढ़ाने दी गई। दोनों महिलाएं उस समाज की हैं जिसके उन्नयन के लिए तमाम बातें होती हैं, आरक्षण जैसे उपाय किए जाते हैं, लेकिन सच्चाई क्या है, इसका पता अक्सर होने वाली ऐसी ही घटनाओं से लगता रहता है। ऐसा हो क्यों रहा है, सतही तौर पर तो लगता है कि यह आधुनिक होने की जद्दोजहद में जुटे समाज में पुरातन मान्यताओं के उल्लंघन का नतीजा है या त्वरित परिवर्तन की इच्छाओं का या फिर सामाजिक विद्वेष समाप्ति के दावों की सच्चाई यही है। बोंटी पंचायत प्रतिनिधि थी और कांग्रेस की सक्रिय कार्यकर्ता। राहुल गांधी की सभा से देरी से लौटने पर गुस्साए पति ने उसकी जान ले ली। कहा तो यहां तक जा रहा है कि पति राहुल गांधी का चुम्बन लेने पर बोंटी से नाराज था। राजकुमारी भी दलित ही है, जिसे समानता के संवैधानिक प्रावधानों पर शायद भ्रम था। यह भ्रम मंदिर के पुजारी ने तोड़ा और वह अपनी गलती मानने को राजी भी नहीं। अडिग है कि अपने रहते किसी दलित-अछूत को मंदिर में घुसने नहीं ंदेगा। बोंटी कांग्रेस की कार्यकर्ता थी, उसकी सीमाएं घर की देहरी तक नहीं थीं, पंचायत की बैठकों में सक्रिय हिस्सेदारी थी उसकी। पति ने सत्ताधीश बनकर उसकी यह उपलब्धियां बोंटी के साथ ही फूंक दीं। दोनों मामलों में कानूनी कदम उठेंगे लेकिन क्या उसका असर होगा? नहीं, अगर असर होता तो आजादी के इतने साल बाद भी ऐसी घटनाएं नहीं हुई होतीं। पहली घटना के सम्बन्ध में इससे किसी को इंकार नहीं होगा कि समाज में महिलाओं के लिए खतरे कम होने के बजाय बढ़े हैं। बदलाव के साथ खूबियां और खामियां दोनों ही जुड़े होते हैं। भारतीय समाज में महिलाओं की बदलती स्थिति को लेकर भी हालात कुछ ऐसे ही हैं, खासकर यौन-शोषण आज ऐसा मुद्दा है जिससे महिलाएं सर्वाधिक पीड़ित हैं। किसी भी रूप में शोषण निंदनीय है। यह समाज के मानकों के खिलाफ है, सभ्य और स्वस्थ समाज के नियमों का उल्लंघन है। यह सामाजिक मूल्यों के हृास का मुद्दा है। बोंटी का उदाहरण बताता है कि बदलाव की बयार के साथ महिलाएं सशक्त हुई हैं, उन्हें राजनीतिक तंत्र में स्थान मिलने लगा है किंतु पुराने समय की तरह पति का अहं आज भी उसके रास्ते की बेड़ी है जिसमें उसे जान तक गंवानी पड़ जाती है। राजकुमारी जिस जाति व्यवस्था का दंश भुगत रही है, वह समाज की पुरानी बीमारियों में शुमार है। हालांकि भारतीय समाज में मूलत: किसी के साथ किसी भी दृष्टि से भेदभाव को कभी स्वीकार नहीं किया गया है। जाति, पंथ या आस्था के आधार पर भेद करना हमारी संस्कृति नहीं है पर, एक विशिष्ट कालखण्ड में ये कुरीतियां हमारे समाज में प्रवेश कर गयीं। मथुरा की घटना एक बार फिर सिद्ध करती है कि इन कुप्रथाओं को समाज से पूरी तरह निकाल बाहर करना एक बड़ी चुनौती है और हम उस पर खरे उतर नहीं पा रहे हैं। कभी हमारे समाज में श्रम का महत्व था पर समय चक्र के साथ समाज में जाति प्रथा आ गई और फिर वह हमारी संस्कृति का एक अंग-सा बन गयी। हमारा पूरा समाज जातियों-उपजातियों में बंट गया। कुछ सीमित मायनों में जाति अपने समाज को संरक्षण तो देती है, पर साथ ही साथ उसकी प्रगति को अवरुद्ध भी कर देती है। इस जाति प्रथा का सबसे बड़ा दोष है कि इससे समाज में समरसता के अभाव का निर्माण होता है। आरक्षण जैसे सत्ताधीशों के प्रयास इस खाई को और बढ़ा देते हैं, जिस आरक्षण को उपेक्षित जातियों के उन्नयन के लिए प्रारंभ किया गया था, वह सामाजिक विषमता का विषय बनने लगा। जाति व्यवस्था से जन्मी विषमता समाज के लिए खासी नुकसानदेह है, इस पर सभी का मतैक्य है पर इसे कैसे बाहर किया जाए, इस पर मतभिन्नता है। हमें यह समझ लेना चाहिए कि हजारों वर्षों से चली आ रही इस कुप्रथा का निर्मूलन कुछ वर्षों या दशकों में होने की उम्मीद रखना एक भूल होगी। यह कोई क्रांति नहीं कि एक रात में तस्वीर बदल जाए। इसके लिए लम्बे समय तक धैर्यपूर्वक प्रयास करने की जरूरत है। यह समाज की मानसिकता बदलने की बात है। यह एक लम्बी चलने वाली प्रक्रिया है जो धीरे-धीरे ही सफल होगी। इसके लिए संयम की आवश्यकता है। इस कुप्रथा पर केवल प्रहार करने से काम नहीं बनने वाला। समाज के अंदर घुल-मिल कर, उसे समझाकर, नम्रता के साथ व्यवहार करते हुए सारी स्थिति स्पष्ट करके ही यह कुप्रथा दूर करनी होगी। यही रास्ता उचित भी होगा। मथुरा का प्रकरण बता रहा है कि हमारे प्रयास गंभीर नहीं रहे और हम प्राथमिक स्तर के नतीजों को ही अंतिम मानकर व्यवहार करने लगे हैं। दुर्भाग्य से हर क्षेत्र की तरह इस क्षेत्र में भी राजनीति और राजनेताओं का बड़ा दखल है। कोई बात अगर राजनीति में उलझ जाए तो वह जटिल बन जाती है। राजनीतिक दलों ने विषमता एवं जातिप्रथा को अपने फायदे के लिए एक मोहरा बना लिया है और अपने लाभ के लिए वह इसका समय-समय पर इस्तेमाल करने से नहीं हिचकते। जाति आधारित प्रकोष्ठ गठित किए गए हैं, हाईकोर्ट के स्पष्ट आदेशों के बावजूद चोरी-छिपे समरसता जैसे नाम देकर जाति सम्मेलन आयोजित हो रहे हैं जिनमें राजनीतिक पार्टियां समाज से जातिभेद भुलाने का आह्वान करने के बजाय उसे अपनी जाति के नाम पर संघर्ष करने को उकसाती हैं। इस आक्रमण का प्रतिकार करना आसान नहीं है। हमारे समाज के हर जाति के नेताओं को इस विषय को गंभीरता से लेते हुए जाति व्यवस्था से उत्पन्न विषमता के दानव तथा राजनीतिक दलों की विघटनकारी राजनीति से एक साथ लड़ने की आवश्यकता है। यही समय की मांग भी है।