Sunday, September 14, 2014

काली दुनिया के लिए नूरा-कुश्ती

याद कीजिए उन दिनों को जब समूचे उत्तर प्रदेश में लॉटरी का खेल चरम पर था। सुबह होते ही लॉटरी बाजार में रौनक हो जाती और शाम ढलने तक खूब लोग आबाद-बर्बाद हो जाया करते। सरकार भी खुश,  टैक्स के रूप में उसकी करोड़ों की आय जो थी एक दिन की। दिन बदले, सामाजिक बुराई ने तमाम परिवारों को लील लिया, तमाम जानें चली गर्इं, लोगों के घर बिक गए, कर्जे के बोझ तले दब गए। मजबूरी में राज्य सरकार को रोक लगानी पड़ी और फिर यह खेल, परदे के पीछे चला गया। हालांकि कुछ राज्यों में अब भी जारी है, यूपी में भी फिर सुगबुगाहट है, पर सरकार मूड में नहीं दिखती।
देश में लॉटरी का कुल बाजार (आॅनलाइन लॉटरी सहित) तकरीबन 60 अरब डॉलर से ज्यादा है। इस कारोबार को अनिच्छापूर्वक ही सही, व्यापार विषय के तौर पर मान्यता दी जाती है। यह संविधान की संघीय सूची में केंद्र के लिए आरक्षित है जबकि सट्टेबाजी-जुआ राज्य के विषय हैं। नैतिकता की कीमत पर फल-फूल रहे यह बाजार राजस्व के एक बड़े स्रोत हैं और संविधान की मूल भावना के खिलाफ भी जाते हैं लेकिन सरकारें संभावनाओं की नींव पर चलायी जाती हैं। बहरहाल, मैं लॉटरी की इस समय बात इसलिये कर रहा हूं कि पिछले कुछ समय में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों के बीच लॉटरियों को लेकर मतभेद खत्म करने के लिए दर्जनों आदेश पारित किए हैं। हर राज्य अपनी लॉटरी से पूरा राजस्व प्राप्त करना चाहता है और उसकी यह कोशिश होती है कि उसके क्षेत्र में दूसरों का दखल न हो। राज्य यह भूल रहे हैं कि हमारे संघीय संविधान के अनुच्छेद 301 के तहत देश में व्यापार की स्वतंत्रता का अधिकार सुनिश्चित है। राज्य की सीमाओं से पार लॉटरियों के बढ़ते विवादों की वजह से केंद्र ने 1998 में लॉटरी विनियमन अधिनियम बनाया जिसमें राज्यों को अनुमति दी गई कि वे दूसरे राज्यों की लॉटरियों पर प्रतिबंध लगा सकते हैं लेकिन इसे कुछ राज्यों और एजेंटों ने चुनौती दे दी। शीर्ष कोर्ट ने बीआर एंटरप्राइजेज बनाम यूपी स्टेट (1999) मामले में दिए फैसले में इस कानून को सही ठहराया लेकिन कुछ प्रावधान भी स्पष्ट कर दिए। कोर्ट ने कहा कि केवल वे राज्य जो लॉटरी का संचालन नहीं करते हैं वे दूसरे राज्यों की लॉटरियों पर रोक लगा सकते हैं। लेकिन लॉटरियों को लेकर झगड़ा खत्म नहीं हुआ। उच्चतम न्यायालय को इस कानून से जुड़े कुछ सवालों को अभी तय करना है क्योंकि राज्य एक-दूसरे के खिलाफ कानूनी अड़चन डालना जारी रखे हुए हैं। सिक्किम-पंजाब के बीच विवाद को तूल पकड़ चुका है जिसमें सिक्किम की आॅनलाइन लॉटरी को बंद करने का प्रयास किया गया था। नगालैण्ड ने भी विवाद में पक्ष बनने की कोशिश की थी लेकिन पिछले हफ्ते अपनी याचिका वापस ले ली। समस्या और भी हैं। केरल जैसे राज्य परोपकारी गतिविधियों के आवरण में लॉटरी का धंधा करते हैं। अन्य राज्य रोक लगाएं तो हो-हल्ला मचा दिया जाता है।
इससे अलग भी देश में तमाम तरह के जुए और चल रहे हैं। सट्टा तो प्रतिदिन फल-फूल रहा ही है, शेयर बाजार, रुई बाजार, चांदी-सोना बाजार, गुड़-खांड, अरंडा, मूंगफली बीजों जैसे तमाम वायदा सौदों के जरिए भी जुआ खेला जा रहा है। इन बाजारों में कोई भी व्यक्ति बिना माल पास हुए करोड़ों रुपयों का माल बेच सकता है। रुपये न होते हुए करोड़ों का माल खरीद सकता है, बस उसे मात्र सेटलमेंट के दिन भावों में फर्क का भुगतान करना पड़ेगा। पूरी दुनिया में रोजाना करोड़ों रुपये के वायद सौदे होते हैं, कुछ इसी तरह का चलन मुंबई, दिल्ली और कोलकाता आदि शहरों में है जहां लाखों रुपयों के सट्टा सौदे रोजाना अंजाम तक पहुंचते हैं। सट्टे का मूल स्वरूप यही है कि आपका अंदाज सही निकला तो आप कमाएंगे और दूसरा कोई नुकसान उठाएगा। इन व्यापारों में धन पैदा नहीं होता। यह कमाई हुई संपत्ति नहीं बल्कि एक से दूसरे व्यक्ति को इसका अंतरण है। सरकार कमाई के लोभ में इनकी स्वीकृति देती है और भूल जाती है कि यही वायदा कारोबार कई बार महंगाई बढ़ने की वजह बनते हैं।  वह याद नहीं रखती कि राष्ट्र धन की वृद्धि इन सट्टों से कतई नहीं हो सकती। सरकार को इनके नियमन के लिए भी तत्काल कदम उठाने चाहिये। उसे याद रखना चाहिये कि जुए-सट्टे या लॉटरी से उसकी जनता का भला नहीं हो रहा बल्कि उसकी समस्याएं बढ़ रही हैं। पति-पत्नियों में तलाक की वजह यह भी है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, जुए की लत से मरने वालों की संख्या कुल मौतों में से सात प्रतिशत के आसपास है जो वर्ष 2001 में मात्र एक प्रतिशत थी। समस्या का जितना जल्दी हल हो जाए, उतना ही अच्छा। यह समय की मांग भी है।

Saturday, September 6, 2014

हांफती जेलों के लिए उम्मीद की किरण

निर्धारित सजा की आधे से अधिक अवधि जेल में गुजार चुके विचाराधीन कैदियों की रिहाई का रास्ता साफ हुआ है। निर्धारित सजा की आधे से अधिक अवधि जेल में गुजार चुके विचाराधीन कैदियों की रिहाई का रास्ता साफ हुआ है। सुप्रीम कोर्ट का यह वाकई स्वागतयोग्य निर्णय है क्योंकि देशभर की जेलों में 60 फीसदी विचाराधीन कैदी हैं। इन्हीं की वजह से जेलों में कैदियों का  भार बढ़ रहा है, सुरक्षा व्यवस्था प्रभावित हो रही है। मानवाधिकार के मोर्चे पर आलोचनाएं झेल रहीं जेलें इस फैसले से राहत की सांस ले सकती हैं। इन विचाराधीन कैदियों के मानवाधिकार हनन के पुराने आरोप से जेलों का प्रशासन खासा परेशान रहता है।
बेशक, यह मानवाधिकारों का हनन है कि आप किसी व्यक्ति को गिरफ्तार कीजिए और उसे सजा सुनाए बगैर ही जेल में रखे रहिए। झारखण्ड की एक जेल से रामकरण मांझी नामक कैदी की मौत खबर आई थी। मांझी को दो वर्ष पूर्व छेड़छाड़ की धारा 294 के तहत गिरफ्तार किया गया था। थानाधिकारी चाहता तो उसे थाने से ही जमानत दे सकता था, लेकिन उसने गरीब मांझी को जेल भेज दिया। छेड़छाड़ के आरोप में छह माह की सजा का प्रावधान है किंतु उसके मामले में सुनवाई ही  नहीं हुई। वह निर्धारित से चार गुनी सजा काटता रहा और 68 वर्ष की आयु में उसकी मौत हो गई। यह उसके मानवाधिकार का सरासर उल्लंघन था। सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे ही मामलों पर संज्ञान लिया है।  हम यह कैसे भूल सकते हैं कि किसी भी राष्ट्र में कानून व्यवस्था के दृष्टिकोण से जेलों का महत्व हमेशा से रहा है। अपराध नियंत्रण के लिए जेलों की अनिवार्यता को हर शासन व्यवस्था ने स्वीकार किया है। जेलों को सुधार गृह के रूप में मान्यता है, दंड का उद्देश्य तभी पूरा होगा जब हमारी जेलें सुधार गृह के तौर पर सफलता से काम कर पाएंगी। लेकिन हकीकत क्या है, सलाखों के भीतर सब-कुछ वैसा नहीं चल रहा जैसा चलना चाहिए। जेलों में क्षमता से अधिक कैदी हैं और उन पर नियंत्रण के लिए कर्मचारियों की संख्या बढ़ाने के बारे में हमने अरसे से नहीं सोचा। कैदियों के अनुपात में जेलें न होने पर दो आशंकाएं पैदा होती हैं। पहली, हम जनसंख्या और अपराध के बदलते परिवेश को ध्यान में रखते हुए जेलें बनवाने में नाकाम सिद्ध हो रहे हैं और दूसरी, हम अपराध नियंत्रण में लागतार असफल हैं। आंकड़ों पर गौर करें तो भारत की कुल लगभग 1400 छोटी-बड़ी जेलों में से लगभग तीन लाख 81 हजार कैदियों में से दो लाख 54 हजार विचाराधीन कैदी हैं। सुप्रीम कोर्ट का जिन अंडर ट्रायल कैदियों पर निर्णय आया है, उसकी यह स्थिति क्यों है। इसके लिए बढ़ते अपराधों को कारण माना जाए या फिर धीमी न्याय प्रणाली को। भारतीय जेलों में ज्यादातर कैदी ऐसे हैं जिनके केस की सुनवाई दशकों से चल रही है और वे सलाखों के पीछे रहने को मजबूर हैं।  जेलों में सजायाफ्ता कैदियों की तुलना में विचाराधीन कैदियों की संख्या है। जेलों में असंतुलन की इस स्थिति में सुधार गृह के अनुकूल वातावरण बना पाना संभव नहीं दिखता। जेलों के औचित्य पर सर्वाधिक प्रश्नचिह्न तब लगता है, जब आए दिन जेलों से बढ़ रहे आंतरिक अपराधों, आत्महत्याओं और तमाम तरह की सांठगांठ की खबरें आती हैं।
तमाम बार जेलों में बंद रसूखदार अपराधियों के पास से मोबाइल आदि बरामद हुए हैं। यहां एक तरफ तो रसूखदार कैदियों के लिए तमाम सुविधा-संसाधन उपलब्ध हैं, वहीं आम कैदियों की मूलभूत सुविधाओं में कटौती की जाती है जिससे तमाम कैदियों में अवसाद की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। उनके मन में जेलों के प्रति यातना गृह का भाव आ जाता है। अपराध नियंत्रण के लिए बनी जेलों में ही यदि आंतरिक अपराध फलने-फूलने लगे तो अपराधियों के सुधार की संभावनाएं समाप्त ही हो जाएंगी। हाल तो यह भी है कि जेल तंत्र की शह पर तमाम पेशेवर अपराधी जेलों से ही अपनी आपराधिक गतिविधियां संचालित कर जेलों के उद्देश्यों और दंड नीतियों को मुंह चिढ़ाते हैं। जेलों के भीतर की समस्याएं यहीं तक सीमित नहीं, तमाम बुनियादी समस्याएं भी हैं, जो कहीं न कहीं जेलों के वास्तविक उद्देश्यों के पूरे होने में बाधक हैं। कैदियों की भीड़ तले दबती जेल कैदियों की मूलभूत जरूरतें भी पूरा कर पाने में असफल साबित हो रही हैं। कैदियों के स्वास्थ्य, सुधार, शिक्षा, रोजगारपरक प्रशिक्षण आदि की बात की जाए तो भी कैदियों और जेलों की संख्या के अनुपात का असंतुलन भारी नजर आता है। शारीरिक और मानसिक स्थिति के प्रति जेल अफसरों के ढुलमुल रवैये के कारण आए दिन कैदियों के रोगग्रस्त होने, आपसी झड़पों और आत्महत्या की घटनाएं सामने आती रहती हैं। बुनियादी सुविधाओं को तरसते आम कैदियों के हालात बहुत बेहतर नहीं हैं और शायद यही कारण है कि जेलें अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हो पा रही और इसके लिए सबसे ज्यादा न्याय प्रणाली की धीमी गति दोषी है। दो-राय नहीं कि हमें समय रहते अपने मूल उद्देश्यों से भटकती इन जेलों के प्रति गंभीर होना होगा और उन तमाम बिंदुओं पर सजग होना पड़ेगा कि जेलों के अंदर स्वस्थ माहौल बनाया जा सके। जेल अपने इन उद्देश्यों से भटकती जाएंगी तो समाज को सबसे बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट ने न्याय प्रणाली की नाकामी का खामियाजा भुगत रहे लोगों को राहत का इंतजाम किया है। बेशक, यह लोग न्याय तंत्र के स्तर से तात्कालिक राहत पाने के हकदार हैं।