Sunday, November 17, 2013

चीन-पाक के मोर्चे पर खाली हाथ

मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार का दूसरा कार्यकाल भी लगभग समाप्ति की ओर है। चुनावों की तैयारियां हैं, सियासी माहौल गरमा चुका है। नेताओं की रैलियों के दौर चल रहे हैं, आरोप-प्रत्यारोप और वोटरों को लुभाने के स्टंट भी चरम पर बढ़ रहे हैं। मौका समीक्षा का आ रहा है, सरकार कठघरे में है। पूछा जा रहा है कि दो कार्यकाल में यूपीए सरकार के हिस्से में कितनी उपलब्धियां आई हैं। भारत की आर्थिक स्थिति तेजी से गिरती जा रही है। सोचा जाता था कि भारत की विकास दर चीन के बराबर होगी या कम से कम आठ प्रतिशत तो अवश्य होगी परंतु आज यह गिरकर महज चार प्रतिशत रह गई है। खैर, समस्याएं क्या हैं और उनके कितने हल हुए, यह दीगर है। चीन और पाकिस्तान की घुसपैठ ने सिद्ध किया है कि हम विदेश नीति के मोर्चे पर ढंग से वार नहीं कर पा रहे, बल्कि रक्षात्मक हुए हैं। चीन-पाकिस्तान के मुद्दे पर अंतर्राष्ट्रीय समर्थन के मामले में हमारी उपलब्धियां शून्य हैं। यह हाल तब है जबकि हमारे प्रधानमंत्री ने 10 साल के कार्यकाल में हवाई जहाज से 6,20,000 मील की उड़ान भरी है और 72 बार सरकारी दौरे पर विदेश गए हैं। सबसे पहले चीन के साथ सम्बंधों की बात करें। चीन हाल के दिनों में हमलावर हुआ है और घुसपैठ से भी नहीं हिचक रहा। मनमोहन ने बीजिंग में कहा था कि, भारत और चीन हाथ मिलाते हैं तो दुनिया उत्सुकतापूर्वक देखती है लेकिन चीन जिस तरह से भारत की अवहेलना कर रहा है, उससे लगता है कि वह भारत को दूर-दूर तक अपना प्रतिस्पर्धी नहीं मानता। चीन-भारत शिखर वार्ता के दौरान दोनों देशों के बीच बॉर्डर डिफेंंस कोआॅपरेशन एग्रीमेंट हुआ जिसका अर्थ है चीन और भारत के फौजी सीमा पर आपस में नहीं लड़ेंगे और न उस तरह की घटना होगी जैसी कुछ माह पूर्व लद्दाख में हुई थी, जहां चीनी फौजी करीब तीन हफ्तों तक भारत की सीमा मेंं डटे रहे थे। सवाल यह है कि हम उत्साहित क्यों हैं? कुछ दशकों में दोनों देशों के सम्बंधों का विश्लेषण किया जाए तो चीन की कथनी और करनी का अंतर स्पष्ट हो जाएगा। वह सदैव भारत के साथ मधुर सम्बंध बनाने की बात करता रहा है परन्तु चुपके से हमारी जमीन हड़पने से भी नहीं हिचकता। उसने चार हजार किमी भूमि हड़पी हुई है। कुछ महीने पहले तक वह अरुणाचल प्रदेश को भारत का अभिन्न हिस्सा मानता था लेकिन अब कहने से नहीं हिचकता कि एक दलाई लामा का जन्म चूंकि अरुणाचल प्रदेश में हुआ था इसलिये यह प्रदेश भी चीन का ही हिस्सा है। चीन जाने के इच्छुक लोगों को वह नत्थी वीजा देता है, मनमोहन के कहने पर उसने इस मसले पर अपना रुख बदलने से इंकार कर दिया। उसका तर्क है कि अरुणाचल चीन का हिस्सा है और यहां रहने वाले उसके नागरिक, अपने नागरिकों को चीन जाने के लिए वीजा की कोई जरूरत ही नहीं है। यह शत्रुतापूर्ण रवैये का ही उदाहरण है कि चीन भारत को चारों ओर से घेर रहा है, भारत के कट्टर शत्रु पाकिस्तान को वह हर तरह की आर्थिक और सामरिक मदद दे रहा है। पाकिस्तान के ग्वादर बन्दरगाह को विकसित करने का पूरा खर्च भी उठा रहा है। म्यांमार और श्रीलंका में भी बन्दरगाहों का जाल बिछा रहा है। भारत को नीचा दिखाने के लिए तमिल विद्रोहियों के साथ युद्ध में क्षतिग्रस्त हुए श्रीलंका के पुलों और सड़कों की मरम्मत करा रहा है। तमाम ढांचागत परियोजनाओं में मदद के जरिए वह श्रीलंका को सन्देश दे रहा है कि वही उसका असली मित्र है, भारत नहीं। पाकिस्तान के मोर्चे पर भी मनमोहन का यह दूसरा कार्यकाल कुछ उम्मीद जगाने में नाकाम रहा। भारत ने कोशिश की कि पाकिस्तान उग्रवाद का समर्थन बंद करे और सकारात्मक सम्बंधों की दिशा में आगे बढ़े। इसके लिए समग्र वार्ता की योजना तैयार की गई, जिसमें कश्मीर, व्यापार और मछुआरों-कैदियों की रिहाई जैसे मानवीय मुद्दों को भी शामिल किया गया। आशा थी कि पाकिस्तान व्यापार, कृषि, उद्योग, यात्रा में सुगमता जैसे मामलों में दिलचस्पी लेगा और भारत के प्रति शत्रुता की उसकी भावना कम होने लगेगी पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। भारत को व्यापार में तरजीह का दर्जा देने के नाम पर वह टालमटोली कर रहा है। आर्थिक स्थिति जबर्दस्त ढंग से गड़बड़ाने की वजह से वह व्यापार बढ़ाना तो चाहता है लेकिन अपनी शर्तों पर। उसे लगता है कि वह आंशिक व्यापार के साथ नकारात्मक और आक्रामक नीतियों को भी जारी रख सकता है। उदाहरण देता है चीन का, जिसमें दोनों देशों के मध्य व्यापार और तनाव के साथ-साथ सीमा पर चीनी आक्रामकता का भी सह-अस्तित्व है। मनमोहन सरकार की नीतियों और वार्ता की व्यग्रता से लगता है कि वह पाकिस्तान के रवैये को स्वीकार कर रही है। पाकिस्तान में अभी तक आतंकी ढांचा मौजूद है। हम रक्षात्मक हैं, यह भूल रहे हैं कि रक्षात्मक रुख से युद्ध नहीं जीते जाते। हमारे लचर ढर्रे से लाभ में आतंकी रहते हैं और इसका खामियाजा जनता को भुगतना होता है। हमारी विदेश नीति निर्धारकों का एक तबका यह भी मानता है कि सेना और कट्टरपंथियों को काबू में करके पाकिस्तान सरकार शांति का माहौल बना सकती है, इसके लिए उसे पूरा समर्थन और छूट दी जानी चाहिये। कुछ साल पहले भारत पाकिस्तानी टेक्सटाइल उद्योग को रियायतों के लिए तैयार हो गया था लेकिन बाद में नकारात्मकता देखकर यह सहमति वापस लेनी पड़ी। सरकार यह मानने को तैयार नहीं दिखती कि पाकिस्तान पर वास्तविकता आधारित दीर्घकालीन नीति की जरूरत है। हमें उम्मीद नहीं बांधनी चाहिए कि एक दिन पाकिस्तान शत्रुतापूर्ण रवैया छोड़कर आतंकवाद का समर्थन बंद कर देगा। अमेरिका जिस तरह हर आतंकी हमले पर हमारे रुख का समर्थन करता है, हमारे पास मौका था और है कि हम पाकिस्तान को समझाएं कि आतंकवाद के पोषण के कितने गंभीर नतीजे निकल सकते हैं। हमारा ध्यान पाकिस्तान से निपटने के लिए प्रभावी उपायों की तलाश पर होना चाहिए, न कि वार्ता करने या वार्ता न करने पर। आश्चर्य की बात है कि चीन और पाकिस्तान के अहम और कठिन मोर्चे पर कूटनीतिक असफलताओं के बावजूद यूपीए सरकार कैसे अपनी पीठ ठोंकने की जुर्रत कर सकती है।

Saturday, November 16, 2013

झूठी शान के बदले जान !

आगरा के एत्मादपुर में एक बेटी पिता की झूठी आन का शिकार बन गई। पिता ने आवेश में आकर उसे ताबड़तोड़ गोलियां चलाकर मार डाला। आनर किलिंग के इस मामले से फिर उजागर हुआ है कि हमारा सामाजिक ताना-बाना अभी उतना मजबूत नहीं हुआ है जो जाति और धर्म के नाम पर पड़ने वाली चोट सहन कर सके। विचारों में 21वीं सदी की उन्नति की बात कहने वाले वैश्वीकरण के युग में रहने के इस दावेदार समाज को आखिर हुआ क्या है। झूठी शान के लिए आनर किलिंग के ऐसे तमाम मामले गाहे-बगाहे सामने आ ही जाते हैं। देश की राजधानी हो या फिर कस्बे और गांव, प्यार करने वालों को कड़ी सजा दी जाती है। शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक बदलाव की दुहाई देकर देश के विकास की बात करने वाले हम लोग उस समय क्यों मौन हो जाते हैं, जब हमारे बीच ही आॅनर किलिंग के नाम पर हर साल कई बेगुनाह मौत के घाट उतार दिए जाते हैं? आनर किलिंग पर खूब हो-हल्ला मचा लेकिन हालात अब भी बदले नहीं हैं। हाल ही में हुए एक शोध से यह उजागर हुआ है कि भारत में जितने लोग आतंकवादी घटनाओं में मरते हैं, उससे कहीं ज्यादा मौतें प्यार या शारीरिक सम्बंधों की वजह से होती हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो की ओर से जारी वर्ष 2012 के आंकड़े भी चिंताएं पैदा करते हैं, जिनसे साफ है कि निजी दुश्मनी और संपत्ति विवाद के बाद प्यार हत्याओं की तीसरी सबसे बड़ी वजह है। यही नहीं, देश के सात राज्यों में तो प्यार ही हत्याओं की सबसे प्रमुख वजह है। इनमें 445 हत्याओं के साथ आंध्र प्रदेश पहले और 325 के आंकड़े के साथ उत्तर प्रदेश दूसरे स्थान पर है। आश्चर्यजनक रूप से आॅनर किलिंग के लिए हरियाणा को कोसा जाता है लेकिन वहां प्यार के बदले महज 50 लोगों को मौत हासिल हुई, जबकि उत्तर प्रदेश में इसका साढ़े छह गुना। लेकिन ऐसी स्थितियों की वजह क्या हैं? नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के सर्वेक्षण की ही बात करें तो पता चलता है कि आॅनर किलिंग के मामलों में ज्यादा वो लोग मारे गए जिन्होंने कुछ समय पूर्व ही युवावस्था की दहलीज पार की थी। कौन नहीं जानता कि उम्र का एक पड़ाव ऐसा भी आता है, जिसमें युवा मन अपनी भलाई के लिए ज्यादा नहीं सोच पाता। उसका दिमाग कहीं एक जगह जाकर टिक जाता है। प्रेम-प्रसंगों की जहां तक बात है, उसे कोई सलाह भी गलत लगती है, लेकिन आज के खुले समाज में माता-पिता, भाई-बहन आपस में दिल की बात खुलकर करते हैं। आगे बढ़ने-बढ़ाने के लिए संघर्ष करते हैं। अगर समझदार, कानूनी भाषा में बालिग, होने पर सेटल होने के लिए अपने जीवनसाथी का चुनाव खुद करता या करती है, तो उस पर आपत्ति क्यों? फिर आपत्ति का यह तरीका, कि किसी को मौत के घाट उतार दिया जाए। बजाए इसके, बातचीत का रास्ता भी तो अपनाया जा सकता है। असल में हमारे समाज में बेटियों के मामले में ज्यादा आन और शान समझी जाती है। कई मामलों में देखा गया है कि बेटे ने अपने पसंद की लड़की से शादी कर ली तो उसे स्वीकार कर लिया गया लेकिन यही कदम परिवार की बेटी ने उठाया तो उसे मार डाला गया। दरअसल, मध्ययुगीन परंपरा में जीने वाले समाज ही इस अभिशाप को ढो रहे हैं। इसके उलट, जिन समाजों का विकास हो रहा है, वे इन्हें छोड़ते जा रहे हैं। वे महिलाओं का वास्तविक सम्मान और उनको बराबरी का स्थान देने लगे हैं। उनके लिए महिलाएं पुरुष के मनोरंजन का साधन नहीं हैं। अधिकांश घटनाओं के पीछे जातिगत श्रेष्ठता का अभिमान ही मुख्य कारण दिखाई देता है। अंतर्जातीय विवाह इन बर्बरताओं के मूल में दिखते हैं। प्रगतिशील हिंदू या किसी भी दूसरे धर्म के अनुयायियों ने कभी जाति को जन्मना नहीं माना, फिर किन कारणों से यह जन्मना बन गई, इस पर भी विचार करना होगा। अपने प्रिय व्यक्ति के शव को भी जलाने में संकोच नहीं करने वाला हिंदू क्यों अभी तक इस अभिशाप को ढो रहा है? विवाह के समय क्यों वह जाति के खोल में घुस जाता है? जाति के चश्मे से देखने वाले लोग यह क्यों नहीं समझते कि परिवर्तन ही जीवन है और जड़ता मौत का प्रतीक। यह उस देश की बात है, जो मंगल अभियान की बदौलत दुनिया की अंतरिक्ष महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है, जो सूचना प्रौद्योगिकी की महाशक्ति है। हम बेटियों को पढ़ाने-लिखाने के बड़े-बड़े दावे किया करते हैं, उन्हें बराबर सिद्ध करने के लिए क्या-कुछ नहीं कहा करते, तो फिर इस तरह की घटनाएं कैसे संकेत देती हैं? क्या छोटे-छोटे घावों के नासूर बन जाने से पहले उसका इलाज नहीं किया जाना चाहिए? क्या हमारे घरों का माहौल ऐसा नहीं बनना चाहिए कि बच्चे अपने भविष्य के बारे में सोचें और अपना करियर बनाएं। ऐसे में यदि उन्हें अपने हिसाब से योग्य जीवनसाथी नजर आए तो हम उसे सहमति प्रदान करें या सही मार्गदर्शन कर दूसरे रास्ते पर ले जाएं। पुलिस और कानून के स्तर पर भी कड़ाई की जरूरत है, क्या यह वक्त नहीं है आॅनर किलिंग के तमाम मामलों को देखते हुए हमारे नीति-नियंताओं को ठोस कदम उठाने चाहिए? कोई तो ऐसा कानून बनना चाहिए कि सम्मान के नाम पर होने वाली ये हत्याएं तत्काल प्रभाव से रुक जाएं। इंसानियत का खून होना बंद होना ही चाहिये।

Monday, November 11, 2013

अंतरिक्ष में उम्मीदों के पंख

परम्परागत प्रतिद्वंद्वी चीन और तकनीक का महारथी जापान मीलों पीछे है, और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में भारत की तूती बोल रही है। पिछले पांच बरस में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने जिस तरह से 15 शानदार मिशन पूरे किए हैं, व्यावसायिक जगत में पैर रखा है, मंगल अभियान की शुरुआत की है, उससे हमें गौरवान्वित होने की बड़ी वजह हासिल हुई हैं। हालांकि एक चुनौती भी है, तीन सौ अरब डॉलर से अधिक के अंतरिक्ष लांचिंग बाजार में भारी उपग्रह लांचिंग का भरोसेमंद विकल्प बनने के लिए इसरो को जीएसएलवी तकनीक पर महारत साबित करनी है, शुरुआती तौर पर हम लगभग नाकाम रहे हैं। भारत में खगोलविद्या आर्य भट्ट-भास्कर के समय की विरासत है, उस समय भी हम आगे हुआ करते थे। लेकिन वर्तमान अंतरिक्ष कार्यक्रम करीब 50 वर्ष पुराना है, यह 60 के दशक में शुरू हुआ था। 1981 की एक फोटो बीबीसी ने जारी की है जिसमें एप्पल सैटेलाइट को प्रक्षेपण के लिए बैलगाड़ी में ले जाया जा रहा है। ... और भारत अब उपग्रहों, प्रक्षेपण यानों और अंतरिक्ष उपयोगों की अंतर्देशीय डिजाइनिंग और विकास की क्षमताएं प्राप्त कर चुका है। हमारी प्रक्षेपण क्षमताओं की विश्व में मान्यता है, यही नहीं, इसरो अन्य देशों के उपग्रहों का भी प्रक्षेपण कर दौलत का ढेर लगा रहा है। हमने अंतरिक्ष प्रयोगों का इस्तेमाल अन्य देशों से उलट, सरकार को लोगों के करीब ले जाने में किया है, विशेष रूप से उन लोगों के, जो दूरदराज के इलाकों में रहते हैं। टेली शिक्षा और टेली-चिकित्सा के जरिए सरकार लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा कर रही है। एजुसैट से स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाई के तरीके में बदलाव आया है। ग्राम संसाधन केंद्रों से कृषि, बागवानी, मत्स्य पालन, मवेशी पालन, जल संसाधनों, माइक्रो फाइनेंस और व्यवसायिक प्रशिक्षण के क्षेत्रों में लोगों को जानकारी देने में आसानी हुई है। दूर-संवेदन क्षमताओं से प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन सुचारू रूप से हो रहा है। भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम की एक महत्वपूर्ण विशेषता शुरू हो रही है, भारतीय उद्योगों के साथ सहयोग का नजरिया। इसके तहत लघु, मध्यम तथा बड़े स्तर के 500 से भी ज्यादा उद्योगों से सम्बंध स्थापित किए हैं। सामान की खरीददारी, जानकारी के आदान-प्रदान अथवा तकनीकी परामर्श के जरिए ये रिश्ते बने हैं। अंतरिक्ष कार्यक्रम से ताल्लुक रखने के कारण अंतरिक्ष उद्योग में अब उन्नत प्रौद्योगिकी को अपनाने या जटिल निर्माण कार्य की सामर्थ्य आ गई है। इसरो ने तमाम लम्बी लकीरें खींच रखी हैं जो चीन जैसे हमारे दुश्मनों को परेशान कर रही हैं। यह हमारे दम का ही नतीजा और चीनी बेचैनी की वजह है कि अर्जेंटीना, आॅस्ट्रेलिया, ब्राजील, ब्रुनेई, दारेस्सलाम, बुल्गारिया, कनाडा, चिली, चीन, मिस्र मौसमी पूर्वानुमानों के लिए हमसे सहयोग ले रहे हैं। बात यहीं खत्म नहीं होती, यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (ईएसए), फ्रांस, जर्मनी, हंगरी, इंडोनेशिया, इजरायल, इटली, जापान, कजाकिस्तान, मॉरीशस, मंगोलिया, नार्वे, पेरू, रूस, स्वीडन, सीरिया, थाइलैंड, नीदरलैंड, उक्रेन, ब्रिटेन, अमेरिका और वेनेजुएला के साथ हमने अंतरिक्ष क्षेत्र में सहयोग की संधि कर रखी हैं। अब मंगल अभियान की बात करते हैं। अमेरिका जैसी महाशक्ति बधाई दे रही है लेकिन हमारे देश में ही इस बात को लेकर आलोचनाएं हो रही हैं कि क्यों आर्थिक विपन्नता की स्थिति में हमने इस अभियान पर साढ़े चार सौ करोड़ की भारी-भरकम राशि खर्च की। हम गुजरात में करीब इतनी ही राशि से सरदार वल्लभ भाई पटेल की गगनचुंबी प्रतिमा स्थापना की योजना बना सकते हैं, हर साल दीपावली पर करीब तीन हजार करोड़ के पटाखे फूंक देते हैं। पर राष्ट्रीय स्वाभिमान के लिए खर्च राशि पर नजरें टेढ़ी करने लगते हैं, जबकि असल में, इस अभियान की सफलता आने वाले दिनों में इसरो के लिए कमाई के नए रास्ते खोल सकती है, इंटर प्लेनेटरी लांचिंग की कामयाबी इसरो को करीब पांच सौ करोड़ रुपये की कमाई करा सकती है। अंतरिक्ष लांचिंग बाजार अच्छा-खासा है जिसमें प्रौद्योगिकी विहीन तमाम देश नासा जैसी एजेंसियों की मदद से अपने सैटेलाइट लांच कराते हैं। चूंकि नासा की मदद बड़ी राशि खर्च कराती है इसलिये यह देश सस्ता विकल्प तलाशते रहते हैं। इस मायने में जापान अब तक सबसे ज्यादा फायदा उठाता रहा है। मंगल अभियान के रास्ते रॉकेट तकनीक को सफलता मिलेगी और हम तीन सौ अरब से ज्यादा के इस अंतरिक्ष लांचिंग बाजार में प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज कराने में सफल हो जाएंगे। अमेरिका और जापान की जगह इसरो को देश अहमियत देने लगें, इसके लिए प्रयास किए जाने की योजना बनाई गई है। नासा के मुकाबले इसरो महज दस प्रतिशत लागत पर ही अंतरिक्ष में सैटेलाइट भेज सकता है। भारत सरकार की नजर अफ्रीका के साथ ही मध्य एशिया के उस देशों पर ज्यादा है, जहां विकास और संचार सुविधाओं के विस्तार ने उपग्रह की जरूरतें बढ़ा दी हैं। हालांकि एक नकारात्मक बिंदु भी है। इसरो की जीएसएलवी तकनीक की असफलता चुनौती बनी हुई है। लांचिंग बाजार में भारी उपग्रह लांचिंग का दमदार और भरोसे के काबिल विकल्प बनने के लिए जीएसएलवी तकनीक पर महारत सिद्ध करने की जरूरत है। समस्या की बात यह है कि 2001 से अब तक हुए इसके परीक्षणों में सिर्फ तीन ही सफल हुए हैं। कहने का लब्बोलुआब यह है कि हम अंतरिक्ष की महाशक्ति बनने की ओर बढ़ रहे हैं। मंगल अभियान ने उम्मीदों को पंख लगाए हैं, सटीक कदमों से लग भी रहा है कि यह उम्मीदें पूरी होकर रहेंगी। हम होंगे कामयाब एक दिन... और वो दिन अब दूर नहीं लगता। (लेखक ‘पुष्प सवेरा’ से जुड़े हैं।)

Saturday, November 2, 2013

दुनियाभर में दीपावली

दीपावली देशों की सीमाएं पार कर चुकी है। अप्रवासी और भारतीय मूल के नागरिकों के जरिए इस प्रमुख त्योहार ने पहले अन्य देशों में दस्तक दी और अब वहां की संस्कृति में घुलने-मिलने लगा है। आप इस पर आश्चर्य करेंगे, अमेरिका में प्रतिवर्ष दीपावली के पटाखों पर खर्च में दो सौ गुना तक वृद्धि हुई है। वहां की संसद दीपावली पर प्रस्ताव पारित करती है। इसी तरह ब्रिटेन जैसे देशों में भारतीय अब वहां के स्थानीय माहौल के मुताबिक ध्वनि प्रदूषण की चिंता नहीं किया करते बल्कि जमकर आतिशबाजी करते हैं। दिवाली के दिन त्रिनिडाड और टुबैगो में सार्वजनिक अवकाश होता है। बेशक, यह भारतीयों की बढ़ती आर्थिक और सियासी हैसियत का असर है लेकिन विशाल भारतीय बाजारों की भूमिका भी इसमें कम नहीं है, तभी तो पटाखे अमेरिका-आस्ट्रेलिया के नामी सुपरस्टोर्स में मिला करते हैं। वो ज्यादा पुराने दिन नहीं जब विदेशों में रहने वाले हमारे भाई-बंधु संक्षिप्त-सी दीपावली मनाया करते थे। ध्वनि-वायु प्रदूषण जैसे डर उन्हें डराते थे। पटाखों के बारे में वो सोचने तक से घबराते थे। दक्षिण-पूर्व इंग्लैण्ड के हैम्पशायर की एक घटना ने तब खूब तूल पकड़ा था जब वहां के अप्रवासी भारतीय परिवार के विरुद्ध पुलिस ने महज इस आधार पर कार्रवाई कर दी थी कि उनके चलाए पटाखों से पड़ोसी का कुत्ता डर गया था। तब रक्षाबंधन पर कलाइयों पर बंधी राखियों को वह शर्ट की फुलस्लीव से छिपाते थे। अब इंग्लैण्ड के आसमान पर भी दनादन रॉकेट दागे जाते हैं। यह मामूली बात नहीं है। सकल घरेलू उत्पाद यानि जीडीपी के संदर्भ में भारत विश्व की नौवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और अपने भौगोलिक आकार के मामले में सातवां सबसे बड़ा देश है। जनसंख्या की दृष्टि से दूसरा सबसे बड़ा देश है। हाल के वर्षों में गरीबी और बेरोजगारी से सम्बन्धित मुद्दों के बावजूद हमारा देश विश्व में सबसे तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में से एक के रूप में उभरा है। यही हमारे दम की वजह है और विदेशों में हमारे अप्रवासी और भारतीय मूल के लोगों का दबदबा बढ़ा है। आतंकवादी वारदातों में छवि खराब होने से त्रस्त पाकिस्तानी या बांग्लादेशी ऐसे खुले माहौल में नहीं जी पाते। यह भारतीय समुदाय की 'सॉफ्ट पावर' है, उनके पास नकदी है। उन्होंने विकास की कहानियां रची हैं। व्यवसाय जगत में उनका बड़ा नाम है। उनमें से तमाम लोग तो राजनीतिक हस्तियां हैं। उनका संख्याबल है जो सत्ता के पास ला सकता है और दूर भगा सकता है। उनसे सम्बन्धित देश को उम्मीदें हैं। संस्कृति का सत्ता से सीधा रिश्ता होता है। लेकिन बात सिर्फ इतनी ही नहीं। पूंजी के वर्तमान दौर में सत्ता बाजार के पास है और एक बहुत बड़ा बाजार भारत में है। इसी तरह की व्यावसायिक महत्वाकांक्षाओं ने अंग्रेजों को भारत का दरवाजा दिखाया था। कपास, चाय और मसालों की बेशुमार मौजूदगी ने उन्हें आकृष्ट किया था। वर्तमान बिहार के चंपारण में चंपा के जंगलों में उन्हें नील की फसल उगानी थी। भूण्डलीकरण के मौजूदा दौर में आज वह घुस तो नहीं सकते लेकिन भारत के विशाल बाजार में अपनी वस्तुओं से घुसपैठ की उनकी मंशा है और यह उनके लिए हजारों-करोड़ डॉलर की कमाई की वजह बन सकती है। भारत की सरकार ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत देकर उनकी उम्मीदें बढ़ा ही दी हैं। अरबों डॉलर की आस्ट्रेलियाई ट्रांसपोर्ट और लाजिस्टक कंपनी लिनफॉक्स के संस्थापक लिंडसे फॉक्स की बातें उस सपने को उजागर करती हैं कि भारत के साथ द्विपक्षीय व्यापार बढ़ाने से आय तो बढ़ती है, रोजगार के मौके भी कई गुना बढ़ जाते हैं। अकेले आस्ट्रेलिया यदि इस व्यापार को दोगुना कर 40 अरब डॉलर तक पहुंचा लेता है तो सात प्रतिशत नए उद्योग स्थापित करने होंगे और इससे तमाम लोगों को रोजगार हासिल होगा। भारत अकेली अर्थव्यवस्था है जहां हर साल 10 करोड़ नए लोग चीजें खरीदने के लिए तैयार हो जाते हैं। यह संख्या आॅस्ट्रेलिया की आबादी का पांच गुना है। इसके साथ ही देश के मध्यवर्ग की खान-पान की बदलती आदतों के कारण रेस्तरां कारोबार काफी फल-फूल रहा है, यही वजह है कि विदेशी रेस्टोरेंट चेन भारत में आएदिन अपने नए-नए प्रतिष्ठान खोल रही हैं। भारत का भोजन-सेवा बाजार 50 अरब डॉलर का है जो कुछ छोटे देशों के सालाना बजट के बराबर है। इसी वजह से चिली सरीखे देशों की कम्पनियां भी ललचा रही हैं। भारतीय बाजार में चिली की शराब और समुद्री भोजन ने अपनी जगह स्थापित कर ली है। आॅटोमोबाइल बाजार भी तमाम देशों की कम्पनियों को अपने यहां मौका दे चुका है इसीलिये तमाम विदेशी नामचीन ब्रांड भारत में आसानी से सुलभ हैं। अमेरिका और यूरोप ही नहीं, अन्य देश भी हमारे दम को सलाम कर रहे हैं। त्रिनिडाड और टुबैगो में भारतीयों की अच्छी-खासी संख्या है। वहां दीपावली पर सार्वजनिक अवकाश घोषित होता है। समूचा देश एक मनचाही उत्सवधर्मिता में डूब जाता है। यहां भी पिछले दो-तीन बरस में बहुत परिवर्तन आया है। हजारों मील दूर एक भारत-सा होता है वहां। हजारों अनिवासी भारतीय अपनी मिट्टी की गंध महसूस करने के लिए ढेरों आयोजन करते हैं। सामूहिक आतिशबाजी हुआ करती है। फिजी और मॉरीशस में भी भारतीयों की संख्या काफी है। दीपावली यहां भी खूब उत्साहित करती है। दुकानों पर महीने पहले दीपावली की सेल आरंभ हो जाती है। समाचार पत्रों में दीपावली के समाचार भरने लगते हैं। एफएम रेडियो और टेलीविजन स्टेशन दीपावली के गीत, भजन और चर्चाएं प्रसारित करते हैं। खास बात यह है कि दीपावली के लिए विदेशों में उत्साह प्रतिवर्ष बढ़ रहा है। विदेशों में बसे भारतीय जहां पहले भारत आकर त्योहार मनाने को प्राथमिकता दिया करते थे, आज अपने देश में ही उल्लास और उमंग का आनंद ले रहे हैं। दीपों का यह त्योहार समूचे विश्व में फैल रहा है तो यह भी तय है कि इसके उद्देश्य और मनाने की वजह का प्रचार भी हो रहा होगा, बुराई पर अच्छाई की विजय का संदेश तो पूरी दुनिया में आखिरकार फैलना ही चाहिये।