Saturday, March 24, 2012

घटकों से झटकों से बेजार संप्रग सरकार

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में अपने एक घटक द्रमुक के दबाव में श्रीलंका के विरुद्ध मतदान से केंद्र सरकार अभी चैन की सांस ले भी नहीं पाई थी कि फिर मुश्किल में फंस गई। सबब वही ममता बनर्जी हैं जो पिछले दिनों रेल बजट को लेकर आंखें तरेर रही थीं। वह लोकपाल पर अपनी मर्जी चाहती हैं। सरकार के समक्ष समस्या यह है कि समाजसेवी अन्ना हजारे अनशन करने जा रहे हैं, वह इसका जवाब देना चाहती थी कि ममता ने 'वीटो' कर दिया। उधर, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता और कृषि मंत्री शरद पवार के सुर बदलने लगे हैं। समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव भी जो बोल रहे हैं, कांग्रेस के प्रबंधकों को हित में नजर नहीं आ रहा। मुश्किल दर मुश्किल है।
ममता से कांग्रेस दो-टूक करना चाहती है लेकिन मुश्किल सामने खड़े लोकसभा चुनाव हैं। डर है कि अकेले पश्चिम बंगाल के रणक्षेत्र में उतरना गलत हो सकता है। विधानसभा चुनाव में वामपंथी सरकार को उखाड़ फेंकने वालीं ममता उनके लिए वहां फायदे का सौदा हो सकती हैं। हालांकि बंगाल में ममता का प्रेम उतार पर आने लगा है। एक सर्वेक्षण में उजागर हुआ है कि ममता का आएदिन और हर बात पर अड़ना लोगों को पसंद नहीं आ रहा। राजनीतिक जागरूकता में पहले नंबर पर आने वाले राज्य से यदि यह खबरें आ रही हैं तो ममता को फिक्र करनी ही चाहिये। तृणमूल कांग्रेस ने तो ऐसा रवैया अपना लिया है जैसे केंद्र सरकार के संचालन का अधिकार उसके पास ही हो। शर्मनाक स्थिति यह है कि उसे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय महत्व के मामलों में तृणमूल कांग्रेस और द्रमुक जैसे अपने घटकों के सामने समर्पण करना पड़ रहा है। तृणमूल कांग्रेस ने खुदरा क्षेत्र में एफडीआइ के फैसले को रोकने के बाद तीस्ता जल संधि पर अडंÞगा लगाया। फिर रेलवे में सुधार के कदम रोकने पर अड़ गई। भारत के राजनीतिक इतिहास में पहली बार रेल मंत्री को रेल बजट पेश करने के कुछ ही घंटों बाद हटाने की घोषणा कर दी गई हो। तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक एवं कुछ अन्य घटक दलों का रवैया पुष्टि करता है कि वे न तो केंद्र सरकार की प्रतिष्ठा की परवाह कर रहे हैं और न ही राष्ट्रीय हितों की। विलियम शेक्सपीयर के प्रसिद्ध नाटक 'हैमलेट' के नायक डेनमार्क ने कहा है, 'दयालु बनने के लिए मुझे क्रूर बनना पड़ेगा।' तृणमूल की तुनकमिजाज प्रमुख ममता पर यह बात पूरी तरह लागू होती है, वह हर मुद्दे पर अपनी क्रूरता का प्रदर्शन कर रही हैं। उनके लिए राजनीति का सरोकार केवल अपने राज्य में दम दिखाने के लिए अपने वोटर मात्र पर दया दिखाने से है।
आखिर ममता का उद्देश्य क्या है? क्या वह सरकार को गिराना चाहती हैं? क्या वह अगले आम चुनाव की तारीखें तय करना चाहती हैं? क्या वह यह सुनिश्चित करना चाहती हैं कि उनका स्थान कोई दूसरा दल न ले। रिपोर्ट चाहें कुछ भी कहें लेकिन सिर्फ अपनी बात कहने-सुनने वाली ममता को लगता है कि यदि जल्दी चुनाव होते हैं तो सबसे अधिक लाभ उन्हें ही होगा। उनकी नजर में इसके कारण हैं: पहला, उनका प्रतिद्वंद्वी वाम मोर्चा 2011 के विधानसभा चुनावों में करारी हार के बाद अभी भी कमजोर है और यदि अभी चुनाव होते हैं तो उन्हें अधिक सीटों पर जीत मिलेगी और वह राष्ट्रीय राजनीति में एक बड़ी शक्ति के रूप में उभरेंगी। दूसरा, उनका सीधा टकराव कांग्रेस से है। वह 2014 या जब कभी भी लोकसभा के चुनाव हों, अपने सहयोगी के किसी बंधन के बिना चुनाव लड़ना चाहती हैं। वर्तमान में उन्होंने कांग्रेस को राज्य में तृणमूल का पिछलग्गू बना दिया है। अनेक कांग्रेसी नेता तृणमूल में शामिल हुए हैं। वर्तमान में वह कांग्रेस का सुनियोजित ढंग से सफाया कर रही हैं और जो कांग्रेस में बचे-खुचे नेता हैं उनकी उपेक्षा कर रही हैं। तीसरा, ममता के धैर्य खोने का एक कारण यह भी है कि उनकी स्वयं की लोकप्रियता कम हो रही है। वह स्वयं अनेक चुनौतियों का सामना कर रही हैं इसलिए वह जल्दी चुनाव चाहती हैं। वामपंथी सरकार ने उन्हें विरासत में एक दिवालिया राज्य दिया। उनके पास किसी बड़ी विकास योजना को लागू करने के लिए पैसा नहीं है और वह राज्य पर 2.04 लाख करोड़ रुपए के ऋण पर भारी ब्याज दे रही हैं तथा विकास कार्यों के लिए उनके पास केवल 5000 करोड़ रुपए हैं। प्रधानमंत्री उनकी दुविधा को समझते हैं किन्तु केन्द्र ममता की मांगों को स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि पंजाब और केरल की भी यही स्थिति है। पश्चिम बंगाल को ब्याज पर छूट दी जाती है तो ऐसी ही छूट उन्हें भी देनी होगी। प्रश्न उठता है कि सरकार कब तक ऐसे चलेगी और कब तक एक के बाद एक संकट का सामना करती रहेगी। यूपीए सरकार को चलाने के लिए एक सहयोगी के रूप में तृणमूल कितनी भी महत्वपूर्ण क्यों न हो किन्तु कांग्रेस को स्वार्थी सहयोगी दलों के खतरों से सावधान रहना चाहिए। समय आ गया है कि सरकार यह स्पष्ट करे कि वह सक्षम है। ... और ममता को उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजों से सबक लेना चाहिये जहां जनता ने बहुमत से चुनीं अपनी मुख्यमंत्री मायावती को बाहर का रास्ता दिखा दिया। ममता की अस्थिर राजनेता की छवि उन्हें बेशक, नुकसान पहुंचा रही है।

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